समाज में देखो लगी, दहेज की है आग।
सहे बहू पड़ताड़ना, कैसी उनकी भाग।।
देखो दहेज नाम पर , होती कैसी क्लेश।
समाज मे होती रही, बहुओं पर अवशेष।।
बेटी हँसती खेलती, कितनी थी मुस्कान।
बनती बेटी जब बहू, दहेज लेती जान।।
देखो समाज खोखली, कैसी उनकी सोच।
दहेज के नाम पर ओ, खाय बहू को नोच।।
शिक्षित समाज बने, देखो कैसे मूक।
बाते करते ज्ञान की, फिर बैठे क्यों चूप।।
बदलो अपनी सोच को, बहुएँ घर की शान।
लक्ष्मी बन आये बहू, रखते घर की मान।।
दौलत से नापो नही, बेटी अपनी मान।
अपनी बेटी भी बहू, बने किसी की जान।।
समझो उनकी दर्द को, करो बहू से प्यार।
खुशियाँ घर आँगन रहे, बने नए संस्कार।।
-हेमलाल साहू
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